काफी वक़्त से मेने कुछ भी नहीं लिखा, सच कहु तो में सोचता हु की अब वो लिखने का हुनर मुझ मै नहि रहा। पहले बहोत कुछ लिखा करता था, कभी कहानी तो कभी शायरी, मगर पिछले कुछ दिनों से मैंने कभी लिखने पर गौर नहीं किया।
अभी कुछ दिन पहले की ही बात है, मै YouTube पर videos देख रहा था की अचानक मेरे feed में कुछ शायरिओ के videos आ रहे थे, तो मेने एक वीडियो खोल कर देखा और उसे देखने का बाद लगा की काफी यादें जो की किसी गहरे भूतल पर पड़ी थी वो सतह पर आ गयी।
वो वीडियो में जो ग़ज़ल थी वो मशहूर शायर मोहसीन नक़वी साहब की थी।
उस ग़ज़ल का पहला शेऱ कुछ इस तरह था
मंसूब थे जो लोग मेरी ज़िन्दगी के साथ,
अक्सर वही मिले है बड़ी बे-रूखी के साथ।
मोहसीन नक़वी
ये सुनने का बाद फिर से एक बार कुछ लिखने की इच्छा हुई। काफी कोशिशों के बाद भी कुछ सूझ नहीं रहा था की क्या लिखू। फिर अचानक एक शाम कुछ लाइन्स दिमाग में घूम रही थी बिना सोचे।
शायद COVID-19 की वजह से जो lock-down स्थिति है उसी के कारण। यही सोच आ रही थी की कितनी ख़ामोशी है चारो तरफ, क्या किसी ने भी कभी ये सोचा होगा की पूरी दुनिया एक ही झटके में घरो के अंदर कैद हो जाएगी। शहरो और सड़को पर इस तरह की ख़ामोशी छा जाएगी। शायद नहीं सोचा होगा ऐसा किसी ने भी इसलिये आज ऐसे होते देखना अपने आप में काफी अजीब एहसास है।
दिन और रात में कोई फर्क नहीं दिखता। कई बड़े शहरो में तो सड़क पर ऐसे सन्नाटे आधी में भी देखने को नहीं मिलते थे।
जब हम आज़ाद थे तो कभी आज़ादी की परवाह नहीं की, और आज कुछ देर के लिए बहार जाने को तरस गए है। काम और कमाई के चक्कर में कभी परिवार के साथ वक़्त नहीं बिता पाए, आज ऐसे हालत है की हम सबको न चाहते हुए भी घरो के अंदर परिवार के साथ रहना पड़ रहा है।
तो मुझे कही न कही ऐसा लगता है की जब भी हम अपनी सीमाएं भूलने लगते है, कुदरत पीछे नहीं हटती उन्हें याद दिलाने में। ऐसा कई बार हो चूका है इतिहास में।
इन्ही सब ख्यालो के बीच में एक ग़ज़ल आयी मेरे मन में जो काफी हद तक आज के हालत, मौसम और इंसानियत को अपने तरीके से कहने का प्रयास करती है।
ख़ामोशी – सन्नाटे की आवाज।
ख़ामोश रहकर जानी अहमियत अहल-ए-शोर की,
चोरी कर के जानी नियत बिचारे चोर की ।
चाँदनी रातों में वाबस्ता नहीं थे चाँद से,
अंधेरी रातों में जानी तड़प उस चकोर की।
उम्र भर नज़रंदाज़ करते रहे रिश्ते पिरोए उस डोर को,
जब टूटी तब जानी क़ीमत उस डोर की ।
बड़ी ही अजीब ख़ुश्बू से लबरेज़ हैं सारा समा,
न जाने कहा से चली है, ये हवा इस ओर की।
ज़िक्र हमारी शराफ़त का ख़ूब होता हैं बज़्म-ए-ग़ैर में,
लगता नहीं तू इतना भी ज़हीन ‘मुंसिफ़’, सुन के बातें किसी ओर की।
मत कर गुमाँ तू अपने वजूद, अपनी हस्ती पर,
संगमरमर की चमक भी मोहताज हैं उस मोर की।
जिस्मों कि चाहत में गुज़र रही है उम्र ज़माने की,
ना जाने ऐसी मोहब्बत है कोनसे दौर की ?
रूख मोड़ना इधर को ग़र इल्म-ए-दीन की चाह हो,
इस किनारे पर तारिफ़े सुनी है मेने उस छोर की ।
इतना आसान नहीं ग़म-ए-दरियाँ से बेख़ौफ़ गुज़रना,
नाकाम ही सही, कोशिशें की है मेने पुरज़ोर की ।
मुंसिफ़।
‘मुंसिफ’ मेरा पैन नाम है। बहोत दिनों बाद मेने कुछ लिखा है, शायद 1 पुरे साल के बाद। सोच रहा था की कही और पब्लिश करू पर लगा जब खुद की वेबसाइट है तो कही और क्यों पब्लिश करना। वैसे भी इस वेबसाइट पर यह पहला आर्टिकल है जो हिंदी में है।
कैसा लगा यु तो नहीं पूछ सकता फिर भी अगर थोड़ी देर के लिए भी इस ग़ज़ल ने आपको बांध के रखा हो तो यह अपने आप में एक बहोत बड़ी बात है।
Leave a Reply